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Poem on Jallianwala Bagh | जलियांवाला बाग पर कविता | Poem on Jallianwala Bagh Massacre

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एक वो सुबह थी
जोश और उल्लास से भरी
उत्साह हर और
चले जा रहे थे लोग
स्वर्ण मंदिर के दर्शन कर
जलियांवाला बाग में एकजुट होकर
बच्चे भी थे
माताएं भी थी
बहने भी थी
बूढ़े भी थे
जवानी के रंग में रंगे देशभक्त भी थे।

किसे पता था अगला पल क्या होगा
इस उत्साह और उल्लास का अंजाम क्या होंगा
मौत द्वार पर दस्तक देने वाली थी
सबसे मासूम उन बच्चो की गलती ही क्या थी
समझ पाते अगर लोग, उनकी अगली चाल को
तो कुछ जाने बची होती
अंग्रेजो की नजर में
भारत के लोगो की जान की कीमत बड़ी सस्ती थी
एक संकरा सा रास्ता था
खड़ी कर दी उसमे भी तोप थी
अगर कोई दीवार फांद कर भागने की कोशिश करे
तो खड़ी आगे पूरी अंग्रेजी फौज थी।
दे दिया आदेश, fire 🔥 करने का
लोगो की चित्कारे सब सुनाई देने लगी थी
एक अफरा तफरी सी मची थी
लोग इधर उधर भाग रहे थे
बच्चे कहर से मानो सहम गए थे
महिलाओं के पसीने छूट गए थे
बूढ़े हिल भी नहीं पाए थे
पर डायर की निर्जलता कहा खत्म होने वाली थी
यह भारत के इतिहास की सबसे काली सुबह होने वाली थी
कितने ही कूद गए कुंए में
धरती मां की रूह भी उस दिन कांपी थी
दीवारे फांद कर भागे तो
मौत सामने खड़ी पाई थी
खून से लथपथ हुआ बाग था
बिछ गई सारी लाशे थी
चीत्कार हुई खामोश थी
खामोशी से भरा पूरा जहान था।

धरती मां का आंचल खून से भीगा,
हवाएं भी हुई शांत थी
जलियांवाला बाग हत्याकांड देख
आसमान भी फूट फूट कर रोया था।

वो जलियांवाला बाग ही था, जहा आज भी मासूम लोगो कीचीत्कार सुनाई देती है जो अंग्रेजी अधिकारियों के अत्याचारों के भेंट चढ़ गए।

आओ आज उन्हे याद करे, उन्हे श्रद्धांजलि दे
जिनकी महक हर जगह है
उनके ही कफन से
तिरंगा खुलकर मुस्कुराया है।

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