यह तो मात्र कुछ क्रांतिकारी है
पर शेष अभी बाकी है
यह आजादी जिसके लहू से होकर निकली है
मिट्टी में उसकी कफ़न की कुछ बूंदे आज भी बाकी है।
झूल गए थे फांसी के फंदे पे हंसते हंसते
इंकलाब जिंदाबाद की वो गूंज बाकी है
यह आजादी जिसके लहू से होकर निकली है
मिट्टी में उसकी कफ़न की कुछ बूंदे आज भी बाकी है।
कफ़न ओढ़कर, तिरंगे में लिपटी थी शहादते
वतन की मिट्टी से किया वो वादा बाकी है
यह आजादी जिसके लहू से होकर निकली है
मिट्टी में उसकी कफ़न की कुछ बूंदे आज भी बाकी है।
खड़े है वो सरहदों पर, ताकी हम दीप जला सके घरों में दीपावली का
सियाचिन की पहाड़ियों पर गंगा मया की वो सौगंध बाकी है
यह आजादी जिसके लहू से होकर निकली है
मिट्टी में उसकी कफ़न की कुछ बूंदे आज भी बाकी है।
Patriotic Poem In Hindi | Short Deshbhakti Poem in Hindi | भारतीय स्वतंत्रता के योद्धा पर कविता
वतन की मिट्टी से की जब मैंने गुफ्तगू तो एक ऐसा सैलाब उठा की पूरा भारत पराधीनता की बेड़ियों में लिपटा हुआ था और अत्याचार और जुल्म की दासता से पूरा हिंदुस्तान जकड़ा हुआ था।
उस पराधीनता और आजादी के फासले कैसे खत्म हुए किस्सा आज सुनाती हु, आंखों में आंसू अगर रोक न पाओ तो शहीदों को अर्पित कर देना इसे शहीदों की वीर गाथा सुनाती हु।
वतन की मिट्टी को भर हाथो में
सौगंध भगत ने उस दिन खाई थी
जिस दिन जलियांवाला बाग में
जनरल डायर ने गोलियां चलाई थी।
इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगा
बसंती चोला लहराया था
सुखदेव, राजगुरु और सुखदेव ने
फांसी के फंदे को हस के गले लगाया था।
देश के पहले क्रांतिकारी को कैसे हम भूल जाए
मंगल पांडे ने क्रांति की चलाई जो आंधी थी
बहिष्कार कर अंग्रेजी रायफल का
हिम्मत उसने उस दिन दिखाई थी।
उस वीरांगना लक्ष्मीबाई सिंह सी दहाड़ थी
अंग्रेजो की विरूद्ध खड़ी बन कर वो काली माई थी
जिस दिन बिजली बन गिरी अंग्रेजो पर
उस दिन अंग्रेजो की सामत आई थी।
रानी पद्मिनी कूद पड़ी जोहर कुंड में
१६००० वीरांगना संग आई थी
उसके शौर्य और हिम्मत के आगे अग्नि ने चुपी तोड़ी थी
और हिंदुस्तान की ताकत आज दुश्मनों ने देखी थी।
नहीं भूल सकते हम वो चीत्कार, वो खामोशी, वो लाशे, वो अत्याचार की दासता, वो पराधीनता की बेड़ियां, वो फंदे पे झूलती क्रांतिकारी की तोलिया, वो जेल में रूखी सुखी रोटियां, पानी के लिए तरसती वो कैद की बेड़ियां, वो बन्दूक से निकलती सीना छलनी करने वाली गोलियों, वो आसमान की खामोशी और गंगा मया की बरसती वो आंखें,
कितना झेला है तब जाकर अपने ही हिंदुस्तान में परिंदो की तरह उड़ पाए है
अपनी ही जमीन पर सिर उठाकर चल पाए है
अपनी शान शौकत को साख पर रख कर जीते थे कभी
शहीदों के बलिदान से आज हम पराधीनता की बेड़ियां तोड़ पाए है।
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