बारिश की यह बूंदे
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पहली बारिश
बरसात की यह बूंदे मन को प्रफुलित कर रही है। एक नयी ताज़गी का एहसास करा रही है। आज A.C, पंखो को छोड़ लोग बाहर आ ही गए है। इतने वक़्त बाद चारदीवारी छूट ही गयी है। बारिश का यह नजारा मानों प्रकति में नए रंग भर रहा है और सृष्टि उन रंगो से और रंगीन हो गयी है। एक ही क्षण में गर्मी से बुझे हुए चेहरे कैसे खिल उठे है और बच्चे तो बारिश में भीग कर आनंद की अनुभति कर रहे है।
बूंदो से क्या सन्देश
इतने वक़्त बाद सुनी हुई कॉलोनी में जैसे महक आ गयी थी। सब अपने घरों के बाहर खाट लगा कर बैठे है। वार्तालाप का सिलसिला भी चालू हो गया था। कुछ नया परिचय तो कुछ पुराने संबंध फिर जुड़ चुके थे। हर तरफ एक नयी आशा का बहता हुआ सैलाब था जो बारिश की बूंदो को थामे हर और तेजी से बढ़ रहा था। ऐसे लग रहा था जैसे उसने पैरों में स्केट्स जड़ लिए हो और मन तो साहस की तरंगो में हिलोरे गा रहा था। कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति होती इन बूंदो की जो फिर हमे नयी आशा से जोड़ लेते है और अपने कर्म के प्रति हमेशा गतिशील रहने का प्रेरणा देते है।
एक नयी आशा और
एक नयी उमंग है
बिखरे चारो और
तेरे ही रंग है
प्रफुलित कर मन को
दिया तूने सन्देश है
गतिशील करो कदमो को
चलना तेरे ही संग है।
अगर बूंदे अपनी सीमा छोड़ दे
प्रलय की स्थिति उत्पन हो जायगी और पानी फिर कहर बन के बरसेगा फिर बूंदे ओले का रूप धारण कर लेगी और इंसान बेबस खड़ा रह जायगा क्यूंकि फिर प्रकति भी इस कहर को रोक नहीं पाएगी।
उसी प्रकार अगर इंसान अपनी सीमा त्याग दे तो तो विनाशकारी कल के जिम्मेदार हम स्वयं ही होंगे। एक ही उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है एक आदमी ने सूअर को खाया बदले में स्वीनफ़्लू बीमारी से पूरा भारत झुझ रहा है कितने मोत के आगोश में सो चुके है और न जाने कितने सोने वाले है।
ठहर जा इंसान अपने कुकर्मो को रोक ले
प्रकति से मत कर छेड़छाड़, सृष्टि को उजड़ने से रोक ले
वरना कल और भी विनाशकारी होगा
और उसका जिम्मेदार तू खुद होगा।