झूल गया था फांसी के फंदे पे हंसते हंसते
इंकलाब की गूंज आज बाकी है
यह आज़ादी जिसके लहू से होकर निकली है
मिट्टी में उसकी कफ़न की कुछ बूंदें आज भी बाकी हैं।
वतन की मिट्टी को भर हाथों में
सौगंध भगत ने उस दिन खाई थी
जिस दिन जलियांवाला बाग में
जनरल डायर ने गोलियां चलाई थीं।
भूल गए हम आज आज़ादी के उस दीवाने को
जिसने बीज क्रांति का बोया था
सरफरोशी की तमन्ना दिल में लेकर
धरती मां से लिपटकरकर फिर सोया था।
कतराकतरा से जिसने आज़ादी का लहू घोला है
भारत के गौरव में अमृत का रस घोला है
इतिहास जब वीरों की गाथा गाएगी तो भगत को भी याद करेगी
मरते दम तक मुँह से सिर्फ इंकलाब बोला है।
आज़ादी का एक ऐसा परवाना था
जिसने फांसी के फंदे को भी बनाया खूबसूरत फसाना था
तभी तो नतमस्तक हो जाती धरती माता भी उनके आगे
सरफरोशी की तमन्ना लेकर घूमता वो दीवाना था।