कमल के समान सुवासित जिसका जीवन था
जिनकी रचनाओं में ईश्वर भक्ति नजर आती थी
सामाजिक एकता की मिसाल जिसने कायम की थी
उन्ही संत रविदास जी का आज जीवन परिचय जानते है
और इसे महापुरुषों के चरणों में कोटि कोटि नमन करते है।
संत रैदास जी का जन्म उतर प्रदेश के वाराणसी शहर के गोवर्धनपुर गांव में संतोखदास और कलसा देवी के वहा माघ पूर्णिमा के दिन हुआ। इनके जन्म को लेकर कोई सही प्रमाण नही है, कोईकहता है इनका जन्म १३ वी शताब्दी में हुआ तो कोई कहता इनका जन्म १४ वी शताब्दी में हुआ था। ये चामर जाति के थेऔर इनके पिता जूते बनाते थे। शुद्र होने के कारण इन्हें पूरा मेहताना नही मिल पाता था पर धीरे धीरे यह भी जूते बनाने लगे और जितना भी मिलता उसमे यह खुश रहने लगे। यह अपना काम पूरी ईमानदारी और निष्ठा से करते थे। संतो के प्रति इनका विशेष प्रेम था और यह जूते संतो को बिना पैसे लिए भी दे देते थे जिनसे इनके माता पिता इनसे काफी खफा थे और इन्हे घर से भी बाहर निकाल दिया।
यह बहुत दयालु और परोपकार प्रवृत्ति के इंसान थे। इनके गुरु स्वामी रामनंदाचार्य थे। यह पढ़ने में बहुत होशियार थे । यह नीच जाति के थे इसलिए इन्हे पाठशाला से निकाल दिया गया पर स्वामी रामनंदाचार्य इन सभी चीजों से परे थे। उन्होंने रविदास जी को एकांत में शिक्षा देनी आरंभ की और रविदास जी ने बहुत सी रचनाएं लिखी जो सामाजिक एकता को दर्शाती है और उच्च नीच जाति से परे ईश्वर को सर्वव्यापी बताती है।
नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच
जिसका अर्थ है कि सिर्फ जन्म लेने से कोई नीच नही बन जाता है बल्कि इन्सान के कर्म ही उसे नीच बनाते हैं।
संत रविदास जी निर्गुण भक्ति को महत्व देते है, इनका मानना था की ईश्वर हर जगह व्याप्त है, उन्हें घर में रहकर भी पूजा जा सकता है, एकांत में भी पूजा जा सकता है
तो मंदिरों में जाने की आवश्यकता ही क्या है, उस समय शुद्र को मंदिर में जाने की अनुमति नही थी क्योंकि हीन भावना से ग्रसित उनको हीन समझा जाता था और उन्हें उच्चे वर्ग के साथ न तो पढ़ने दिया जाता था न उनको वैसा सम्मान दिया जाता था।
संत रविदास के समय मुगलों का शासन था। एक तरफ अत्याचार से पीड़ित लोग तो दूसरी ओर untouchability का भी कोप था। संत रविदास ने उतरी भारत में भक्ति आंदोलन को न सिर्फ सफल बनाया बल्कि लोगो में जागरूकता और परस्पर स्नेह भावना को कायम करने की भी कोशिश की।
वो तिलक लगाते थे, जनेऊ भी पहनते थे, जिससे ब्राह्मण उनसे घृणा करते थे , और एक बार तो उन्होंने राजा से भी शिकायत कर दी, तब रविदास ने अपनी छाती चीरकर चार जनेऊ निकाले, तब राजा ने उनसे माफी मांगी। पर इस घटना के बाद उन्होंने कभी जनेऊ नही पहना क्योंकि उनका मानना था की जनेऊ पहनने से ईश्वर नही मिलते।वो मानते थे की ईश्वर, अल्लाह और परमात्मा सब एक है। उनके ४० पद धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में सम्मिलित किए गए है। राजस्थान की कृष्णभक्त मीराबाई उनकी शिष्या थी। मीराबाई बताती थी कैसे उनके गुरु संत रविदास जी ने उन्हे कितनी बार मरते मरते बचाया। चितौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी भी उनकी शिष्या थी। कहा जाता है वाराणसी में १५४० में उन्होंने अपनी देह त्याग कर दी।
वाराणसी में संत रविदास जी का भव्य मंदिर बना हुआ है, जहा लोग उनके दर्शन करने आते है। और उनके नाम से गुरु रविदास स्मारक और पार्क भी बना हुआ है। और उनकी जयंती वाराणसी में बहुत ही धूमधाम से बनाई जाती है और जात पात से दूर परस्पर स्नेह की भावना का संदेश दिया जाता है।
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